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रक्त के दानवीर ने द्विशतक पार कर बनाए खून के रिश्ते

आज कल खून के रिश्ते भी विविध कारणों से कटू होते जा रहे है। ऐसे में भला कोई अनजान आदमी किसी भी तरह का कोई भेदभाव ना करते हुए अपने खून से किसी की जान कैसे बचा लेता है? यह मानविय संवेदना का सर्वोच्च अविष्कार है। चंद्रपुर में रक्तदान आंदोलन की नींव रखनेवाले और ६६ वर्ष की आयू में २११ बार रक्तदान कर चुके सत्यनाराण तिवारी ने अब तक सैंकडों अजनबियों से खून के रिश्ते जोडे है। चंद्रपुर में १० हजार रक्तदाताओं की डिरेक्टरी बनाने का सपना गत ५ वर्षो से संजोनेवाले तिवारी देश के संभवत: पहले ऐसे रक्तदाता है जिन्होने २०० का आंकडा इस उम्र में पार कर लिया है।

तिवारी जी १९६६ से अर्थात उम्र के १६ वे वर्ष से ही रक्तदान करते आ रहे है। आजादी मिले १८ वर्ष ही हुए थे। उस समय रक्तदान के आंदोलन का विचार भी नहीं आया था। तिवारी जी ने जब उम्र के ५० वर्ष पूरे किये तब २००० में आजादी को ५३ साल ही हुए थे। आज देखा जाए तो सत्यनारायण तिवारी के रक्तदान की गंगा को बहते गोल्डन ज्युबिली हो चुकी है। इतने समय में वे २११ बार रक्तदान कर चुके है।

सवाल यह है कि चंद्रपुर जैसे राज्य के दक्षिण-पूर्व छोर पर तेलंगना और आंध्र की सीमाओं से सटे  इस शहर में रक्तदान आंदोलन का ख्याल तिवारी जी को आया और उन्होने अपने पूरे परिवार के साथ इसे अमल में लाया भी। इस ऐवज में महाराष्ट्र सरकार उन्हे गौरवान्वित कर चुकी है। परंतु उनका कार्य इस गौरव से भी बडा है। क्योंकि घर का हर सदस्य आज भी किसी जरुरतमंद की रक्त की जरूरत को पूरा करने के लिए किसी रिश्तेदार की तरह दौड पडता है।

हमारे परिवार में शिवाजी

कहते है कि शिवाजी पडौसी के घर पैदा होने की अपेक्षा करनेवाली मानसिकता हमारे समाज की है। परंतु तिवारी जी के परिवार ने इस मानसिकता को ही सीरे से खारिज कर दिखाया है। उनके बेटे रितेश(रामू) तिवारी ने ५० बार रक्तदान किया है। भाई पूनम तिवारी ने लगभग ८० से ९० बार  तो भतिजे, बहुएं, पोते-पोती आदि भी इस पवित्र दानप्रवाह में शामिल हुए है। परिवार में किसी का भी जन्मदिन होने, या बुजूर्गो का स्मृतिदिवस आदि होने पर रक्तदान करने की परंपरा इस परिवार ने बनाए रखी है। ऐसा करनेवाला यह चंद्रपुर का शायद पहला परिवार है।

और यह भी..

केवल रक्तदान ही नहीं हर तरह की मदद का केंद्र बनने का प्रयास तिवारी जी ने अपने परिवार के साथ किया है। इसलिए चंद्रपुर शहर के कस्तुरबा चौक स्थित उनके ‘तिवारी भवन’ में दिनभर रक्त के साथ ही अन्य सामाजिक सेवाओं के चाहनेवालों की कतार लगी रहती है। यह कतार इसलिए भी है कि यहां से कोई खाली हाथ नहीं लौटता। पुत्र रितेश लंबे अर्से तक पार्षद एवं सभापति रहे। भतिजे सुनिल ने पत्रकारिता का परचम थाम कर भी हर ग्रीष्मकाल में अपने वाहन से प्याऊ का संचालन करते है। भाई पूनम वेकोली में सेवारत होकर भी भाजपा के माध्यम से विविध सामाजिक योगदान में सक्रिय है।

सामाजिक अभिसरण के कर्तव्यदूत

तिवारी जी अपने बारे में ज्यादा बोलते नहीं, स्वयं पत्रकार होने के कारण किसी को कुछ बताते नहीं लेकिन एक किस्सा उनके सामाजिक अभिसरण के क्रांतीदूत जैसा ही है। डा. बाबासाहब आंबेडकर ने जातिभेद की दीवारों को तोडने का मानविय आंदोलन चलया। तिवारी जी के एक घनिष्ट मित्र थे। दलित समाज के थे। वे चंद्रपुर में अधिकारी रहे। उनकी बेटी को यहां अभियांत्रिकी की पढाई करना था। वह दलित की बेटी मारवाडी ब्राह्मण परिवार में अपनी पूरी पढाई तक रही। तिवारी परिवार ने कभी उसे अपने दोस्त की बेटी नहीं बताया, बल्की अपनी बेटी समझ सार्वजनिक और पारिवारिक समारोहों में शिरकत करते रहे। आज भी अधिकांश लोगों को मालूम ही नहीं चला है कि वह लडकी  किसी दलित अफसर की बेटी थी।

दूसरा उदाहरण है एक दलित लेखक युवा का। उसकी शादी रिति रिवाज से ही हुई। गरिब युवक की पत्नि को तोहफा तो कोई यूही दे दे। परंतु तिवारी जी ने चेन्नई में रहनेवाली अपनी बेटी से विशेष प्रकार का नेक्लेस ढेर सारे आशिर्वाद के साथ उसे दिया। आज भी वह लेखक तिवारी जी को पिता कह कर ही बुलाता है। ऐसे कई उदाहरण है।

हैरान है डाक्टर कि…


तिवारी जी के रक्तदान के आंकडे और उनकी उम्र के संदर्भ को लेकर जब हमने एक स्थानिय चिकित्सक डा. अनंत हजारे से बात की तब उन्होने बताया कि तिवारी जी ने अब तक करिब ६३ लिटर ब्लड दिया है। यह हैरान करनेवाली बात है। देश में शायद ही किसी ने इतना दान किया होगा। इसका संज्ञान भी सरकार ने लिया। २००४ में तत्कालिन मुख्यमंत्री स्व. विलासराव देशमुख ने मुंबई में उनका सत्कार किया। इसके अलावा आईएमए, रेडक्रॉस सोसायटी, पैथोलाजी विदर्भ एसोसिएशन और मिरज में भी उनका सत्कार हुआ है।

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